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उदु॑ तिष्ठ स्वध्व॒रावा॑ नो दे॒व्या धि॒या। दृ॒शे च॑ भा॒सा बृ॑ह॒ता सु॑शु॒क्वनि॒राग्ने॑ याहि सुश॒स्तिभिः॑ ॥४१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ति॒ष्ठ॒। स्व॒ध्व॒रेति॑ सुऽअध्वर। अव॑। नः॒। दे॒व्या। धि॒या। दृ॒शे। च॒। भा॒सा। बृ॒ह॒ता। सु॒शु॒क्वनि॒रिति॑ सुऽशु॒क्वनिः॑। आ। अ॒ग्ने॒। या॒हि॒। सु॒श॒स्तिभि॒रिति॑ सुश॒स्तिऽभिः॑ ॥४१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:41


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी विद्वानों का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वध्वर) अच्छे माननीय व्यवहार करनेवाले सज्जन विद्वन् गृहस्थ ! आप निरन्तर (उत्तिष्ठ) पुरुषार्थ से उन्नति को प्राप्त हो के अन्य मनुष्यों को प्राप्त सदा किया कीजिये (देव्या) शुद्ध विद्या और शिक्षा से युक्त (धिया) बुद्धि वा क्रिया से (नः) हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये। हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान ! (सुशुक्वनिः) अच्छे पवित्र पदार्थों के विभाग करने हारे आप (उ) तर्क के साथ (दृशे) देखने को (बृहता) बड़े (भासा) प्रकाशरूप सूर्य्य के तुल्य (सुशस्तिभिः) सुन्दर प्रशंसित गुणों के साथ सब विद्याओं को (आ, याहि) प्राप्त हूजिये (च) और हमारे लिये भी सब विद्याओं को प्राप्त कीजिये ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् लोगों को चाहिये कि शुद्ध विद्या और बुद्धि के दान से सब मनुष्यों की निरन्तर रक्षा करें, क्योंकि अच्छी शिक्षा के विना मनुष्यों के सुख के लिये और कोई भी आश्रय नहीं है। इसलिये सब को उचित है कि आलस्य और कपट आदि कुकर्मों को छोड़ के विद्या के प्रचार के लिये सदा प्रयत्न किया करें ॥४१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वत्कृत्यमाह ॥

अन्वय:

(उत्) (उ) (तिष्ठ) (स्वध्वर) शोभना अध्वरा अहिंसनीया माननीया व्यवहारा यस्य तत्सम्बुद्धौ (अव) रक्ष। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा०६.३.१३५] इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (देव्या) शुद्धविद्याशिक्षापन्नया (धिया) प्रज्ञया क्रियया वा (दृशे) द्रष्टुम् (च) (भासा) प्रकाशेन (बृहता) महता (सुशुक्वनिः) सुष्ठु शुचां पवित्राणां वनिः संभक्ता (आ) (अग्ने) विद्वन् (याहि) प्राप्नुहि (सुशस्तिभिः) शोभनैः प्रशंसितैर्गुणैः। [अयं मन्त्रः शत०६.४.३.९ व्याख्यातः] ॥४१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्वध्वर सज्जन विद्वन् गृहस्थ ! त्वं सततमुत्तिष्ठ सर्वदा प्रयतस्व देव्या धिया नोऽव। हे अग्ने अग्निवत्प्रकाशमान ! सुशुक्वनिस्त्वमु दृशे बृहता भासा सूर्य्य इव सुशस्तिभिः सर्वा विद्याऽऽयाहि। अस्माँश्च प्रापय ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिः शुद्धविद्याप्रज्ञादानेन सर्वे सततं संरक्ष्याः। नहि सुशिक्षामन्तरा मनुष्याणां सुखायान्यत् किंचिच्छरणमस्ति, तस्मादालस्यकपटादीनि कुकर्माणि विहाय विद्याप्रचाराय सदा प्रयतितव्यम् ॥४१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार अहे. विद्वानांनी सत्य, विद्या, बुद्धिबल यांनी सर्व माणसांचे रक्षण करावे. कारण चांगल्या शिक्षणाखेरीज माणसांना सुख मिळू शकत नाही. यासाठी सर्वांनी आळस व कपट सोडून विद्येचा प्रसार करण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे.